यूहीं एक शाम बैठे-बैठे मुझे हिन्दी टाइपिंग का
बुखार चढ़ गया। बस फिर क्या था, कम्प्युटर आँन किया और जो मन में आया लिखना शुरू
कर दिया। गनीमत तो यह है कि, शुरू भी किया तो दोहो से, जिनका मुझसे बड़ा पुराना
रिश्ता है।
“मेरे याद किए हुए कुछ दोहे।”
क) करत करत अभ्यास के, जडमति होत सुजान।।
रसरि आवत जात ते, सिल पर परत निसान।।
ख) रहिमन निजमन की व्यथा, मन राखो ही गोय।। (रहीम)
सुन इठलैहे लोग सभैं, बाट न लैहैं कोए।।
ग) बडा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।। (कबीर)
पंथी को छाया नही, फल लागै अति दूर।।
घ) रहिमन धागा इश्क का, मत तोड़ो चटिकाए।। (रहीम)
जोड़े से फिर ना जुड़ै, जुड़ै गाठ परि जाए।।
ङ) काजल की कोठरी मे, कितनो हि सयानो जाए।। (हमारे
हिन्दी के शिक्षक सुनाते थे)
एक लीक काजल कि, लागी है पैलागी।।
च) बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोए।।
जो मन देखा आपना, मुझसा बुरा न कोए।।
हिन्दी भाषा को लेकर मैं सदैव ही बड़ा भावुक रहा
हूँ। बहुत साल बीत गए, लगभग 8 साल, मैनें हिन्दी लिखना छोड़ सा दिया था। पर अब जो
पुनः शुरू किया है तो देखिए कब तलक साथ चलता है।
(दूसरे दोहे (ख) का श्रेय मेरे दोस्त एवम
सहपाठी, राम को जाता है।)
धन्यवाद।
(यदि कोई टिप्पणी करना चाहे तो बेशक किजिए।)
J
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