तेरे होने ना होने पे यकीन
नहीं होता है।
जब छोटा था चीज़ो कि समझ नही थी मुझमें,
हमेशा बड़ी अचरज मे रहता,
बड़े जो समझाते उसे हि सच मान लिया करता,
हर जवाब में सवाल निकाल लिया करता।
समय बीता, शरीर बढ़ा अक्ल बढ़ी,
अब मेरा सवाल पुछना कुछ कम हो गया है,
जिन सवालों से अचरज हुआ करता था,
अब उन सवालों के जवाब गुगल कर लेता हुँ।
लेकिन बड़ी असमंजसता मे फँस
गया हुँ,
जिन सवालों के जवाब सिधे-सरल लगते थे,
अब उन्ही के जवाब पा सन्तुष्ट नहीं होता,
इसलिए तेरे होने ना होने पे यकीन नही होता है।
बहुत कहते है तु है कुछ नही
भी,
देखता हुँ किसी को-
परेशान, भूखा, डरता या मरता,
एक ही सवाल फिर उठ खड़ा होता है,
तेरे होने ना होने पे यकीन नही होता है।