Friday 24 January 2014

इन्तज़ार

उसे हर वक्त इन्तज़ार रहता है।
साल के बारहो माह बंद रहता है,
न कोई पूछता है, न कोई झाँकता है,
फिर भी उसे हर वक्त इन्तज़ार रहता है।

एक उज़ाड़ सा सूनापन घिर गया है,
मकड़ियों के जालों से भर गया है,
धूल जम-जम कर मिट्टी की शक्ल ले चुकी है,
फिर भी उसे हर वक्त इन्तज़ार रहता है।

वह पुराना हो चला है,
खबर है उसे कोई देखने आने वाला है,
पहले कि तरह अब मुसाफ़िर उसे अनदेखा नही करते,
उसे देख आपस में बातें करते है,
उसका इन्तज़ार अब बेसब्री में बदल गया है।

उसके आंगन में एक अज़ीब कौतुहल है,
हर वक्त नज़रे सामने वाली सड़क पर रहती है,
मानो सदियों से बिझड़े किसी शख्सियत का इन्तज़ार हो,
जिससे मुलाकात अब बस होने वाली है।

आज एक मोटर आई थी,
एक शख्स निकला और इसी तरफ देख रहा था,
पता चला यह वही है जिसका बेसब्री से इन्तज़ार हो रहा था,
फिज़ा मे एक अजीब सी बेचैनी छा गई,
लगा अब इन्तज़ार खत्म हो गया।

वो शख्स दूर से ही मुआएना करता नज़र आया,
अचानक वो मोटर मे बैठा और मोटर के धुंए मे घुम हो गया,
सब एकाएक थम सा गया, आंगन में वही पुराना सूनापन छा गया,
जो इन्तज़ार खत्म होता नज़र आ रहा था,
अब वो इन्तज़ार फिर इन्तज़ार बन गया।

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